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सूरतों में, सरों में औरत है / फ़ाज़िल जमीली

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सूरतों में, सरों में औरत है ।
सब के सब मंज़रों में औरत है ।

दिलनशीं हैं जो मीर के निश्तर,
मीर के निश्तरों में औरत है ।

उठ के पहलू से दिल नहीं लगता,
कोई इन दिलबरों में औरत है ।

बाग़ हैं वो बहिश्त के सारे,
जितने सारे घरों में औरत है ।

हैं जो अँगड़ाइयाँ उड़ानों में,
कोई इन बे-परों में औरत है ।

मेरे दुश्मन शिकस्त है मेरी,
जो तेरे लश्करों में औरत है ।

कारख़ाना रिजाल का होगा,
अब जहाँ दफ़्तरों में औरत है ।

हमने भी इन बुतों को पूजा है,
जब सुना पत्थरों में औरत है ।

ये जो आसार हैं तमादूँ के,
दफ़्न इन खण्डहरों में औरत है ।

जल रहा है दिया दुआओं का,
मक़बरों, मन्दिरों में औरत है ।

फिर कोई सूरतों निसा आए
जादुओं-मंतरों में औरत है ।

रुह तक जो दवा चली आए,
कोई चारागरों में औरत है ।

कुफ़्र मुझसे सवाल करता है,
कोई पैग़म्बरों में औरत है ।

मैं जवाब में यह कह नहीं सकता
क्या कोई काफ़िरों में औरत है ?

किसी की रातें कहाँ महकती हैं,
कौनसे बिस्तरों में औरत है ?

पीसते हैं जो रात में आटा
कोई इन जन्दरों में औरत है ।

शब्दार्थ : बहिश्त : स्वर्ग निश्तर : नश्तर लश्कर : सेना रिजाल : मानव, मनुष्यजाति निसा : औरत, स्त्री जन्दर : पुराने ज़माने में आटा-चक्की