हम दोनो हैं दुखी । पास ही नीरव बैठें,
बोलें नहीं, न छुएँ । समय चुपचाप बिताएँ,
अपने अपने मन में भटक भटक कर पैठें
उस दुख के सागर में जिसके तीर चिताएँ
अभिलाषाओं की जलती हैं धू धू धू धू ।
मौन शिलाओं के नीचे दफ़ना दिये गये
हम, यों जान पड़ेगा । हमको छू छू छू छू
भूतल की ऊष्णता उठेगी, हैं किये गये
खेत हरे जिसकी साँसों से । यदि हम हारें
एकाकीपन से गूंगेपन से तो हम से
साँसें कहें, पास कोई है और निवारें
मन की गाँस-फाँस, हम ढूंढें कभी न भ्रम से ।
गाढ़े दुख में कभी-कभी भाषा छलती है
संजीवनी भावमाला नीरव चलती है ।