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हरी घास चरनेवाले फिर गाँव में आये हैं । / रामेश्वर नाथ मिश्र 'अनुरोध'


कुछ मोटे हैं खिले खिले से, कुछ मुर्झाये हैं।
हरी घास चरने वाले फिर गाँव में आये हैं।
सावधान, मतदेनेवालो! भोले मत बनना,
खतरनाक ये सब चौपाये सींग उठाये हैं।

भूख गरीबी का जुमला इनके ओठों पर है,
ये अनशन करने के पहले जमकर खाये हैं।
महलों के ये मस्त परिन्दे चतुर अहेरी हैं,
गाँव किसानों की पीड़ा मुँह पर लटकाये हैं।

इनका स्वार्थ अगर संकट में देश है संकट में,
समीकरण इस तरह सोचकर ये बैठाये हैं।
राजघाट पर सीस झुकाते गाँधी के आगे,
ये हिंसक नखदंत फरगकर अपने आये हैं।

'लोकतंत्र खतरे में' इनका है प्यारा नारा,
लाजशरम को बीच सड़क पर बेंच के आये हैं।
संविधान की खाल खींचकर छतरी बना लिये,
बार बार जिसकी खिल्ली बेखौफ उड़ाये हैं।