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हुज़ूर, आप तो जा पहुँचे आसमानों में / द्विजेन्द्र 'द्विज'

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हुज़ूर, आप तो जा पहुँचे आसमानों में

सिसक रही है अभी ज़िन्दगी ढलानों में


ढली है ऐसे यहाँ ज़िन्दगी थकानों में

यक़ीन ही न रहा अब हमें उड़ानों में


जले हैं धूप में, आँगन में, कारख़ानों में

अब और कैसे गुज़र हो भला मकानों में


हुई हैं मुद्दतें आँगन में, वो नहीं उतरी

जो धूप रोज़ ठहरती है सायबानों में


जगह कोई जहाँ सर हम छुपा सकें अपना

हम अब भी ढूँढ फिरते हैं संविधानों में


हज़ारों हादसों से जूझ कर हैं हम ज़िन्दा

दबे हैं रेत में मलबे में या खदानों में


उसे तू लाख चुपाने की कोशिशें कर ले

वो डर तो साफ़ है ज़ाहिर तेरे बयानों में


हुए यूँ रात से वाक़िफ़ कि शौक़ ही न रहा

सहर की शोख़ बयारों की दास्तानों में


चली जो बात चिराग़ों का तेल होने की

हमारा ज़िक्र भी आएगा उन फ़सानों में