भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

हैरान हूँ ये देखके कितना बदल गया / उत्कर्ष अग्निहोत्री

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

हैरान हूँ ये देखके कितना बदल गया।
लोहा ज़रा सी आँच में आकर पिघल गया।

बस्ती की आग उसके प्रयासों से बुझ गई,
लेकिन वो शख़्स आग बुझाने में जल गया।

बेटे ने फिर विदेश से आऊँगा कह दिया,
झूँठी तसल्लियों से वो बूढ़ा बहल गया।

गुस्ताखि़याँ भी खूब प्रशंसित हैं इन दिनों,
जीने का आज तौर तरीका बदल गया।

दुनिया की रस्मो राह ने रोका बहुत मगर,
मैं बंदिशों को तोड़कर आगे निकल गया।

शब्दों को शोध-शोध के मैंने रचा जिसे,
वो गीत अन्ततः मेरे जीवन में ढल गया।

मैं चाहता था कानों में भगवत कथा पड़े,
जो भी मिला वो दूजे की निंदा उगल गया।