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सिल-लोढ़े पर / प्रमोद कुमार

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उसे पता नहीं
अँगुलियों और हथेली की कोमलता
कब पिस गई

यूँ तो सिल-लोढ़े पर
पीसते-पीसते
वह भूल गई है अपना पूरा पिस जाना भी

उम्र के कितने वर्ष बाकी हैं
और कितने पिस गए
वह हिसाब नहीं रखती
वैसे भी किसी हिसाब की पिसाई में
उसे कोई स्वाद नहीं दिखता

जीवन के तीखे-से तीखे मिर्चे को भी
सिल-लोढ़े पर
वह स्वाद लायक बना लेती है

वह चलाती है भारी लोढ़ा
तो सिल पर वह भी होती है
उसके पल्लू के हर कोने में
कसकर बँधी हल्दी की अखण्ड गाँठें
पियरी मिलाती चलती हैं
सबके मंगल के लिए

उसके हाथों में
बस सिल-लोढ़े हैं
वह हल्दी के रँग को भी अपना नहीं कहती
पर, जीने लायक ख़ुशी
दिखती रहती है उसकी अँगुलियों और हथेली पर ।