Last modified on 15 जुलाई 2013, at 22:08

पीर के कुछ बीज / कविता वाचक्नवी

Lalit Kumar (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 22:08, 15 जुलाई 2013 का अवतरण

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)

पीर के कुछ बीज
जिस दिन बो दिए
अंतःकरण में
थी उसी दिन से प्रतीक्षा
एक दिन अंकुर उगेंगे,
अंकुरित होंगे
कभी इस रूप में ये
क्या पता था
गीत, कविता, छंद बनकर।

चीर पृथ्वी के हृदय को
फूट पड़ते हैं
कभी भी ये
किसी भी पल
कहीं भी
और मेंड़ों की लकीरें
खींचता है, मन हमारा।

एक निश्चित क्रम नहीं तो
सूख कर ये, झर पड़ेंगे
इसलिए
हर छंद की जड़ में
बहुत आँसू भरे हैं
लहलहाता देखने को।
चाहती हूँ - ये
किसी का
ताप हर लें
तपन हर लें
छाँह दें
विश्राम दें
दें गंध अपनी
और ऊँचे उठ
सभी ये।