Last modified on 11 अगस्त 2014, at 16:26

यह ज़मीन / रणजीत साहा / सुभाष मुखोपाध्याय

Sharda suman (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 16:26, 11 अगस्त 2014 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=सुभाष मुखोपाध्याय |अनुवादक=रणजी...' के साथ नया पन्ना बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)

मुझे किसी की कोरी बातों पर अब रहा नहीं यक़ीन।
मुझे चाहिए ठोस सबूत
कोई दूसरा भी मेरी बातों पर भरोसा कर ले
-मैं नहीं चाहता
आग में
ख़ून में
और टकराव में
सब-के-सब मुझे ठोक-बजाकर देख लें।

इस अँधेरे में भी मैं देख रहा हूँ वे तमाम घिनौने चेहरे
एक दिन जिन्होंने मुझसे वादा किया था लेकिन धोखे में रखा।
प्रतिशोध को वे भले ही कोई नाम दें
लड़ाई को भले ही कोई जामा पहना दें,
मौत को कोई लुभावना नाम देने के बावजूद
मैं अब धोखा खा नहीं सकता।

सागर से हिमालय तक
फेली है मेरे विश्वास की यह ज़मीन।
मुझे बातों में बहला-बहकाकर
कोई भी नहीं छीन सकता यह ज़मीन।