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तो फिर / रणजीत साहा / सुभाष मुखोपाध्याय

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रास्ते होते जा रहे लँगड़े
रास्ते बना रहे लँगड़े
क्योंकि रास्ते बड़े होते जा रहे हैं
रास्ते चौड़े होते जा रहे हैं
और होंगे क्यों नहीं भला?

आखि़र वह कितने दिनों तक बना रहेगा लल्ला?

पहिये से हड्डियाँ कुचलकर
तेज़ गाड़ियाँ भड़भड़ाकर भागेंगी
है कि नहीं?

तो बजाइए ताली
ओ मेरी जान...
वाह बहुत अच्छे
क्या कहना!

ऊँची...और ऊँची इमारतें
खड़ी क्यों नहीं होंगी आखि़र!

हम लोगों के भी ऊपर चढ़ने की
अब आयी बारी
आगे बढ़ो
जल्दी कर लो सारी तैयारी

अब जिसके पास नहीं है चावल
और नहीं है चूल्हा
उन्हें ये इमारतें कैसे आएँगी रास भला
फूटी आँखों नहीं सुहाएँगी!
असली चीज़ है प्रतिभा-

दूसरों की तकलीफ़ से ही
उनका ही भला करते हैं भगवान
इसलिए तकलीफ़ उठाने से क्या हो जाएगा!

जितनी ज़्यादा सुविधा उतना ज़्यादा किराया
दिन दूना रात चौगुना
बढ़ता चला जाएगा।

दिन-पर-दिन
टैक्स की जो मार है
इससे रईसों की नब्ज़
ढीली तो होगी!

और तभी तो मैं यह बता रहा था-
(वक्ता आपका शुभचिन्तक है)
एक-एक पाँव आगे बढ़ाते
चलते चले जाइए
अभी कोई अफ़रा-तफ़री नहीं।
दिन के उजाले में ही
आराम और इतमीनान से
यह शहर छोड़ जाइए।

जिन्हें पूरे ताम-झाम और धूम-धाम से
तमाम कुनबे के साथ रहना है
जो फल-फूल और फेल रहे हैं
जिनकी ख़ातिर फूल-फूल में भरा है मधु
वे ही आज उड़-उड़कर
सारे शहर को जोड़े-जकड़े बैठे हैं।

वे निचले तबके के लोगों को पाताल में मूँद-तोपकर
हाँ जी, ज़रूर रखेंगे।

लीजिए, तैयार किये जा रहे हैं मस्ती बिखेरने के लिए
फ़व्वारे
नदी के किनारे
हर एक पार्क में

चुप बंगाली...बदजात
तुम लोग कोलकाता के कौन हो भला?