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गीत है वह / जगदीश पंकज

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गीत है वह जो सदा आखें उठाकर
है जहाँ पर भी समय से
जूझता है

अर्धसत्यों
के निकल कर दायरों से
ज़िन्दगी की जो व्यथा को छू रहा है
पद्य की जिस खुरदरी, झुलसी त्वचा से
त्रासदी का रस
निचुड़ कर चू रहा है

गीत है वह जो कड़ी अनुभूतियों की
आँच से अनबुझ पहेली
बूझता है

कसमसाती चेतना की,
वेदना का प्रस्फुटन जिसमें गढ़ा है
गीत है वह जो सदा उद्दाम लहरों-सी
निरन्तरता लिए
आगे बढ़ा है

गीत है वह जो सहारा बन उभरता
जिस समय कोई न अपना
सूझता है