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श्रृंगार / श्रृंगारहार / सुरेन्द्र झा ‘सुमन’

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प्रकृति प्रेयसी, पुरुष प्रिय मिलित ललित संसार
भाव विभावित अनुभवित संचर रस शृंगार।।1।।
शृंगार ओ कविता - युव - युवती तट युगल पुनि अनुरागक जल जोर
शृंगारक सागरक दिस कविता सरिता सोर।।2।।

शृंगार तरु - भुज शाखा, दल श्याम कच, वक्ष मुकुल, मुख फूल
स्मित पराग मधु अधर, धनि तरु शृंगारक मूल।।3।।
सहृद भूमि, चिर वासना वीज सलिल कविताक
अंकुर दल पल्लव कुसुम फलित व्यक्त रस - पाक।।4।।

नारि-केलि - सुफल पयोधर पूर, नारि-केलि रस रसिक उर
करिअ आवरण दूर, कठिन प्रथम पुनि मृदु मधुर।।5।।