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सीता की रसोई / प्रकाश मनु

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पहली बार खचाखच भरे रेलवे स्टेशन के प्लेटफार्म
पर देती है
सीता की रसोई
खड़िया के गोल घेरे के भीतर।

खड़िया के उस गोल घेरे के भीतर
गिनती की चार ईटें जोड़कर बनाया गया
तुरत-फरत चूल्हा
हवा के साथ खिलखिला कर हंसती आंच की लौ
पर रखी पतीली
पतीली में खदबदाती दाल....

पास ही दो मुड़ी-तुड़ी थालियां
एल्यूमिनियम की दो कटोरियां दो गिलास
एक चिपके हुए पीपे में पानी
जिसमें गिरा दिए दुष्ट हवा ने नीम के पत्ते दो-चार,
पास ही एक मैली गठरिया में
कपड़े दो-चार
लकड़ी के एक रेढे़ से खेलती एक अधनंगी लड़की
मैली कथरी पर लेटा एक दुबला कमजोर बच्चा
और इस सबमें जीवन भरती
खदबदा रही थी दाल!

और अब उतारकर पतीली
वह काली और:उम्र कोई तीसेक साल
गोल-गोल रोटियां सेक रही है तवे पर
इस फुर्ती से
कि उसे आप किसी भी बड़ी से बड़ी कला
के समतोल रख सकते हैं।

चारों ओर भी भीड़ ओर संकरी निगाहों
से बेपरवाह
एक काली सी गठीली औरत
(जिसका चमकता था माथा तेज आंच की लपटों में!)
जुटी थी अपने काम में इस कदर विश्वास से
कि....
चारों ओर का गोल लक्ष्मण घेरा
फटकने न देगा किसी दुष्ट राक्षस को उसके पास।

और इस वक्त
जबकि लगातार फल की तरह खिल और खिलखिला
रही है रोटियां

दूर एक झबरा कुत्ता
हिलाते हुए दुम....
गिरा रहा है लार....
मगर क्या मजाल कि खड़िया के उस गोल घेरे के भीतर
पड़ जाएं उसके पैर
गो कि आकृष्ट कर रही है उसे तवे पर नाचती
गोल-गोल रोटियां
रोटियों की दूर-दूर तक उड़ती सुवास।

कि तभी उठी सीता माई
उसी गोल के भीतर से
कुत्तों के लिए फेंकी दो रोटियां
एक रोटी रखकर दाल बढ़ाई अधनंगी बच्ची की ओर
एक संतुष्ट नजर डाली उस पर
और फिर उसी तरह
जुट गई अपने काम में....

प्लेटफार्म पर छितराई भीड़ की
हजारों-हजार
उत्सुक आंखों से बेफिक्र।