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आज फिर बेज़ुबान-सा हूँ मैं / कैलाश मनहर
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आज फिर बेज़ुबान-सा हूँ मैं ।
एक ख़ाली मकान-सा हूँ मैं ।
बिन सुने ही किया गया खारिज़,
बाग़ियों के बयान-सा हूँ मैं ।
वो अगर संग दिल है तो भी क्या,
पत्थरों पर निशान-सा हूँ मैं ।
अपनी तारीख़ के उजाले में,
कोई उजड़े जहान-सा हूँ मैं ।

