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आँधियाँ चलने लगीं हैं / रजनी मोरवाल

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आँधियाँ
चलने लगीं हैं फिर हमारे गाँव

झर रहे ख़ामोश
पत्ते उम्र से ज्यों छिन
ज़िन्दगी के चार में से
रह गए दो दिन

खेत की किन क्यारियों में
खो गई है छाँव ?

खेत सूखे
जा रहे हैं, भूख से ज्यों देह
मोर बैठा ताकता है
रिक्त होते मेह

बोझ से ज़ख़्मी हुए
पगडण्डियों के पाँव

रेत ने सब
लील डाली है नदी की धार,
भोगनी पड़ती ग़रीबों
को दुखों की मार

ठूँठ होती
टहनियों पर चील ढूँढ़े ठाँव