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चैत के बादल / शिवबहादुर सिंह भदौरिया

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फसल कटकर
आ गई खलिहान में,
कुछ दिनों के वास्ते
आमोदहीनों के घरों से-
चाहतीं करना पलायन
द्विधा, चिन्ता औ उदासी,
किन्तु
तुम ओ बादलो!
बेवक्त, बेमौसम
गरजते, घूरते आँखे दिखाते हो
महाजन-से
अकड़ते, डाटते से
आदमी के इस पसीने और श्रम की।
हम बहुत दिन
रूढ़ नियमों संस्कारों से विवश
विनती किये
पूजा दिये हैं,
किन्तु वह सब खत्म
बुद्धि से बोदापने का जंग गायब
आत्माओं पर पड़ी लाखों दरारों में जमी काई
बहुत कुछ मिट चुकी।
अव्यक्त पीड़ा,
बेबसी, लाचारियाँ
विषमय घुटन
सब दूर....कोसों दूर,
आज नूतन आस्था के बीज
जाग्रत अंकुरित हो
रे रहे हैं-सुन्दर भविष्यत्-वृक्ष का आकार,

अब तुम्हारे सामने हैं:
आणविक संधान
उद्जन बम-परीक्षण
जो हमारी आत्मा के चरम विकसित
औ समुन्नत रूप,
(शक्ति पर जिनकी जगत शंकालु)
लेकिन
मोड़ देंगे हम नया निर्माणधर्मा
हम तुम्हें मजबूर कर देंगे
समय से जल गिराने के लिए
हम तुम्हें लाचार कर देंगे
समय से लौट जाने के लिए
इसलिए हे मेघ!
जाओ लौट
मान औ सम्मान तुमको जो मिला है
सभ्यता से संस्कृति से,
हम न उसको चाहते हैं यूँ मिटाना
भावना या कल्पना या कर्म कृति से।