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झूठी संवेदनाएँ / शिवबहादुर सिंह भदौरिया

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तुम्हारी संवेदनायें
झूठी, स्पन्दन सिर्फ पेन्डुलम,
युग की चेतना से अपरिचित
तुम जहाँ हो
उस भूमि को वाणी नहीं हो,
अपनी सर्जनाओं में
उस सत्य को नहीं उतार पाये
जिसे तुम सब मिलकर जीते हो,
अपनी रचनाओं से
उन शब्दों को काट दो-
जिनके अर्थ तुम्हारे नहीं हैं।
उन अर्थों को
विश्व के उन तमाम लोगों को बाँट दो
जो धनी और निर्धन
सबको दुआ-सलाम करते हैं,
जो लड़ने वालों को देखकर कतराते नहीं-
बीच-बराव करते हैं,
मौका पड़ने पर
अन्यायी का गला दबाते हैं।
तुम उन अर्थों को
विश्व के उन तमाम लोगों को दे दो
जो निर्बलों की मदद
इस लालच से नहीं करते
कि...सोने का पहाड़ बनवायेंगे,
या
किसी शैतान लड़के को
बन्दूक इसलिए नहीं सौंपते
कि लहलहाते उद्यानों की
मुस्कराहट पर गोली चलाये
और
मासूम चिड़ियों की चहचहाहट पर
बारूद बिछाये;
मैं तुमसे अनुरोध करता हूँ:
उन अर्थों को
विश्व के उन तमाम लोगों के हवाले कर दो
जो दूसरों की समृद्धि देखकर
मोर की तरह पंख फुलाते हैं,
आम्र वृक्षों की भाँति लद-फँद कर
नीचे झुक जाते हैं,
थकन से चूर
बेदम मुसाफिरों को
छाया-करों से थपथपाते हैं
लथपथ शरीरों का पसीना पोंछते हैं
सुगन्धि मलते और भूखे खाली अगौंछों को
फलों से भर देते हैं।