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शॉक-आब्जर्वर / महावीर सरवर

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चलो, यह भी ठीक हुआ।

अबसब कुछ कितना सहज लगता है
कुछ भी तो नहीं दुखता अब
हर तरफ एक सा ही दीखता है
बदरंग और बेनूर/खाली-खाली सा
निस्पन्द
पहले सिहर जाते थे इन बातों से
लगता था कहीं दूर हुए
ठंडे खून की धार
हमारी रीढ़ पर टिघल रही है।
कुछ बेचैन से हो जाते थे कुछभी
गलत देखकर या सुनकर

अब कुछ फर्क नहीं पड़ता।

क्या हुआ-
कोई सहज नहीं मरा, मारागया
या-
कोई चिता में नहीं जला, जलाया गया
लोग तो मरते ही हैं
अब सुर्खियां दहशतजदा नहीं रहीं,
नहीं, यह दकियानूसी आश्वासन नहीं-
कि दर्द हद से बढ़ता है तो
दवा हो जाता है-यह तो सत्य है।
अब कोई भी हादसा हो
उससे भी बड़ा हादसा हो जाता है
और पहला हादसा गुम हो जाता है
एक बड़ी लकीर केपास।
एक और बड़ी लकीर खींच दो।
लकीरों के बीच आंकड़े ठोक दो
सब घाव भर जायेंगे
अब देखो न कितने आराम से
उपद्रवों, उत्पातों को विप्लवों में
शुमार कर लिया है हमने
और उन्हें निर्माण का प्रतीकमान लिया है।

दुख तो सत्य है

हमने अपने भीतर न जाने कब
एक निर्वात शून्य रोप दिया था
सब संवेदनाओं के खिलाफ
अब यह बड़ा होता जा रहा है
और बाकी सब स्वीकार्य।

सचमुच! अब कुछ भी बुरा नहीं लगता

अब कुछ भी अच्छा नहीं लगता!
सच
अब कुछ भी अच्छा नहीं लगता!