भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
वृद्ध होना / यतीन्द्र मिश्र
Kavita Kosh से
अनिल जनविजय (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 20:38, 5 जून 2008 का अवतरण (New page: {{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=यतीन्द्र मिश्र |संग्रह=ड्योढी पर आलाप / यतीन्द्र मिश्...)
छीजता जाता है फूलों से पराग
भीतर का आलोक ढंक लेता सात आसमान
कम होती जाती दुनिया में भरोसे की जगह
उदारता एकाएक आंधी के वेग से चली आती
घर के अंदर रहने
खेल-खेल में टूटते चले गए बचपन के खिलौने से
ज्यादा बड़ी नहीं रहती भूल-गलतियां
कुम्हलाया हुआ दिन हर रोज दरवाजे पर आकर
बताता है अब कुछ होने वाला नहीं है
दुःख यातना और दर्द की कॉपी के पन्ने
कई बार तह खुलने से ढीले और मौसम के रंग
सुग्गों की हरियाली से भी ज़्यादा चटख़ होते जाते हैं
वृद्ध होना
दरअसल ईख का पकना है
बूंद-बूंद बटोरा गया अनुभव
जड़ से कलगी तक भिन जाता जीवन-रस में।

