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जब तक जग में प्राणों का / अमरेन्द्र
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जब तक जग में प्राणों का उत्सव न जागे
गीत रचो मधुमय छन्दों में-मन पाहुन के ।
यह मत सोचो सूली लेकर कौन खड़ा है
सूली पर टँगने वाला उससे भी बड़ा है
गीत प्रेम के जो गाते ही चले गए हैं
शेष रह गई उनकी बातें, चर्चा उनके।
कुछ तो लोग यहाँ पर होते ही जलने को
फूलों की खुशबू को पैरों से दलने को
संवेदन के रस से उनका जी जलता है
गाली देते गीतकार को हैं चुन-चुन के ।
मैंने भी कुछ छन्द लिखे हैं प्रीत-प्रेम के
अपने प्राणों के भावों के कुशल-क्षेम के
कल से सबकेे मन की पीड़ा को पूछेंगे
मेरे गीत-तुम्हारे अब से हुए सगुन के।

