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ई सदी के भारत / मथुरा प्रसाद 'नवीन'

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ओ देखो इमारत,
इमरात वाला के
तरे-तरे तिजारत
तोर खून कहाँ जा रहलो हे?
कुछ नै देखो,
सीताराम सीताराम जपो
गरमी में गेलो
बरसात में पचो
जाड़ा में
थर-थर-थर थर कँपो
बाल-बच्चा
की करतो बढ़ के?
जब तोही बितैला
अपन जीवन
सब दिन
घासे गढ़ के?
पढ़ना-लिखना
ओकरे भाग में लिखल हो
जेकरा इमारत हो
जे दिन तोहर
झुग्गी झोपड़ी उजड़ जैतो
ऊ दिन जान जैबा कि
कैसन
इकइसवीं सदी के भारत हो।
बैतरनी टपो
सीताराम सीताराम!
कहीं कोय नै ऐसन दौर होवो
हम चाहऽ हियो कि
तों सब गरिबका
कभी एक साथ्ज्ञ जौर नै होवो,
इहे तोर तरीका हो
तोहर जिंदगी के
ओकरे हाथ में ठीका हो
जे जाली हो
ओकरे हाथ में
तोहर जिअै मरे के दलाली हो
कल आउ करखाना
बैल नियन कमाय के
झुट्ठे हो एगो बहाना
तों खाली कमा हा
एतना धन जमा करऽ हा
तइयो खाय बिना मरऽ हा
‘सीताराम सीताराम’
रोज भोरे भोरे जपो,
अउ सीधे,
एकदम सीधे
बैतरनी टपो।