Last modified on 6 सितम्बर 2020, at 22:48

नदी पार के हरे भरे तट / प्रभुदयाल श्रीवास्तव

सशुल्क योगदानकर्ता ५ (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 22:48, 6 सितम्बर 2020 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=प्रभुदयाल श्रीवास्तव |अनुवादक= |स...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)

गर्मी बहुत तेज है चलते,
मुंडा घाट नहाने।
पापाजी को भैयन, बिन्नू,
लगते रोज़ मनाने।

किलेघाट का पानी रीता,
रेत बची है बाकी।
उसी रेत में गड्ढा करके,
पानी लाती काकी।
घर के लोग वही जल पीते,
अपनी प्यास बुझाने।

गर्मी का मौसम आता तो,
त्राहि-त्राहि मच जाती।
नहीं एक भी बूँद कहीं से,
जल की थी मिल पाती।
मुंडा घाट चली जाती थी,
मुन्नी इसी बहाने।

मुंडाघाट शहर रहली में,
है सुनार का घाट।
जब हम छोटे थे दिखता था,
कितना चौड़ा पाट।
नदी पार के हरे भरे तट।