Last modified on 25 जून 2022, at 00:00

फिर बाग बहारें देखें / प्रेमलता त्रिपाठी

सशुल्क योगदानकर्ता ५ (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 00:00, 25 जून 2022 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=प्रेमलता त्रिपाठी |अनुवादक= |संग्...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)

बिखरी है जन सत्ता अपनी,कौन इन्हें उकसाता है ।
भरत भूमि की गरिमा पर जो,नित आघात लगाता है ।

फूलों से महके जो रिश्ते,धुंध गुबार भरी बस्ती,
बाग हुए बदनाम उसे अब,बागी कहाँ सजाता है ।

नित्य नयें उन्माद उछलते,सत्ता के गलियारों में,
सत्य न बोले कुविचारी ये,उनको वही सुहाता है ।

राहजनी करती है चिंतित,धुंआधार मनमानी हो,
बढी़ शृँखला अपराधों की, रहा न कोई त्राता है ।

शुद्ध करें अंतस अपना हम,फिर बाग बहारें देखें,
प्रेम सहज परछाई अपनी,मन मानव सरसाता है ।