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बहा देती पत्थरों को / ऋचा

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बहा देती पत्थरों को
होती जब प्रचंड
प्रवाह में अपने
पहाड़ों के घमंड
करती चूर-चूर
होती जब प्रबल
आवेग में अपने
बहती रही जिन
बंधनों में बंध कर
चट्टानों की परिधि को
अपनी सीमा मान कर
कल-कल बहती
निश्छल रूप में अपने
टूटती जब मर्यादाएँ
भंग होती जब वर्जनाएँ
छली जाती निश्छलता
आकाश कांप उठता
वो भूडोल आता है
खंड-खंड बंधन हो जाते
चट्टानें रेत बन बह जाती
कोई बाँध उद्वेग न
थाम पाता है
जब किसी शांत
नदी में तूफान आता है।