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अनकहा संवाद / प्रताप नारायण सिंह

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"तुम चली गईं"
यह कहना अधूरा होगा।
क्योंकि तुम्हारे जाने के बाद भी
हवा में कुछ स्वर रह गए हैं,
जिनकी प्रतिध्वनियाँ
मेरे अन्तः से उठती हैं।

मैं जानता हूँ कि
तुम्हें पुकारना
तुम्हें वापस लौटाना नहीं है;
यह तो बस जैसे
मेरे भीतर की किसी तंत्री का
स्वतः कंपन है।

तुम मुड़ो या न मुड़ो
तुम्हारा निर्णय,
जैसे बादलों का
कि वे बरसें या
उमड़-घुमड़ कर निकल जाएँ|
मैं तो बस वह धरती हूँ,
जो हर बार आसमान की आहट पर,
अपने भीतर नमी सँजो लेती है।

मैं तुम्हारे पीछे नहीं
और तुम मेरे आगे नहीं,
हम दोनों एक अनकहे वाक्य के
दो सिरों पर खड़े हैं
और बीच में
संवाद की रिक्ति है,
जो न तुम्हारी है,
न मेरी
फिर भी हम दोनों की है।

जब तक यह रिक्ति है,
मैं पुकारता रहूँगा।
क्योंकि मौन भी
कभी-कभी उत्तर होता है|