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अनागत / देवी प्रसाद मिश्र

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एक बरगद का पेड़ है
जिसके नीचे कुछ भिक्षु बैठे हैं

जहाँ वे बैठे हैं इतिहास की वह मामूली-सी पृथ्वी है
उनके पाँवों में काँटे और चेहरों पर लौट आने का सुखवाद है

बरगद के नीचे यहाँ अनुभवों की सभा है
एक भिक्षु बताता है कि उसने कुछ लोगों को

दूसरे लोगों से लड़ते हुए देखा
एक भिक्षु के पास गणतंत्र के सभासदों के भ्रष्ट होने का विवरण है

एक भिक्षु किसी नगर का वैभव देखकर स्तंभित है
और सोच रहा है कि

यदि संसार में दुख है तो
उस चमकीले नगर में दुख कहाँ था

एक भिक्षु के पास यह कथा है कि
किस तरह उसने नदी पार की

और उसके ठंडे पानी में ग़ोता लगाते हुए
यह जाना कि यदि दुख है तो दुख नहीं भी है

एक भिक्षु कहता है कि पानी समझकर जो उसने पिया
उससे दो दिनों तक उसकी आँखें लाल रहीं

और क़दम लड़खड़ाए
और जैसे निर्वाण मिल गया हो उसे

इस तरह वह ख़ुद को भूला रहा
एक भिक्षु है जो नहीं लौटा है

नहीं लौट सका है
यह तो होता ही कि जो अनुभवों के बहुत बीच होते हैं

और घटनाओं का तटस्थ नहीं होते
वे अनुभवों को कहने

किसी सभा तक नहीं पहुँच पाते।