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कर्मनाशा की हार / ऋषभ देव शर्मा

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‘कर्मनाशा’
फन पटकती
         लपलपाती धार,
गिर गए पीपल
बहे वट
चतुर्दिक संहार;
कौन-सा वह तंत्र
जिससे
         हो प्रलय की हार?


कर्मनाशा को हराने के लिए
आज तक हर गाँव में
‘बलिदान’ की साजिश जगी है,
श्वेतवर्णा
श्वेतवसना
‘फुलमती’ की कोख में-
फिर एक आदिम पाप की
         कालिख लगी है,
चाँदनी के निष्कलुष आलोक में।


सब बडे़, ओझा, गुनी
बतला चुके-
खून पीकर ही उतरता
         है नदी का ज्वार!
         यह तृषा अनिवार!
कर्मनाशा
फन पटकती
         लपलपाती धार!


मौन ‘फुलमत’,
मौन जनमत,
मौन हाहाकार;
मौन लेकिन, तुम रहे कब
         अरे रचनाकार!
तुम व्यथा में बोलते हो-
हर कथा में बोलते हो-
बोल उट्ठे तुम तुरत
भर
         प्राण में हुंकार!
         ‘शिव’ स्वयं साकार!
कर्मनाशा
फन पटकती
         लपलपाती धार!


पाप है अर्पण अगर
तो
पाप है दुनिया।
         है पलायन पाप, केवल,
         पाप कायरता!
जन्म देना
एक शिशु को
सृष्टि की परिपूर्णता है।
         एक औरत झेलती है
         क्रोध तीनों लोक का।
                  प्यार को यों पाप कहना
                  मूर्खता है, धूर्तता है।
यह अँधेरी वासना की क्रूरता है!


जिन अँधेरों की कृपा से
गाँव सारा डूबता है,
वे बसे हैं, गुंजलक-से
‘पंच’ प्राणों में- मोह ‘मुखिया’ का बने;
डँस रहे दिन रात चिढ़कर
नित्य अपने ही तने।
टूटने को यों विवश हैं
         लाल बालू के कगार!
         तूफान है खँखार!
कर्मनाशा
फन पटकती
         लपलपाती धार!


गिर गए पीपल
मगर
इक नीम की जड़ से
फन पटक कर
लौटती है-
         कर्मनाशा हार!!