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कविता को कविता रहने दो / पूनम चौधरी

कविता को
रेशमी वस्त्रों में मत छुपाओ,
चमचमाते अलंकारों से मत लादो।
रहने दो उसे वैसे ही—
जैसे कोई अलसाई भोर
जो बिना शृंगार भी
मन मोह लेती है।

मत बाँधो उसे
संस्कृतनिष्ठ साँचे, व्याकरण, परिभाषाओं में।
मत जकड़ो उसकी देह
तुकांत-अतुकांत के नियमों से।
उसे रोने दो
बेबस की विवशता में,
हँसने दो
बच्चे की खिलखिलाहट में।

कविता न मंच की ताली है,
ना बाजार की चमकती वस्तु।
वह अनगढ़ ही सुंदर है—
जैसे खपरैल पर गिरती बारिश
की लय,
चरवाहे की बाँसुरी
की मधुरता,
या
बादलों को निहारते
किसान का मौन।

कविता,
तोड़ती है दीवारें,
खोल देती है
खिड़कियाँ—
जहाँ से झाँक सकता है,
कोई भी,
अपने भीतर का आकाश।
वह उग आती है अचानक
जैसे घर की चौखट पर
नीम का अंकुर।

उसे प्रवाहित होने दो,
अपनी ही लय में।
गरजने दो अम्बर से,
धरा की देह पर।
धड़कने दो,
अनसुने छंद की ताल पर।

और जब कभी
थम जाए उसकी संवेदना,
मौन हो जाए उसका स्पंदन—
तब मत देना उसे
 शब्दांजलि
बस लिख देना उसके आखर
किसी पुराने कागज़ पर,
किसी पेड़ की छाल पर,
किसी बच्चे की हथेली पर—

वहीं से देखना
कैसे फूटती है संवेदना,
कैसे उगती है एक नई हरियाली,
कैसे जन्म लेती है
अगली कविता।
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