चारहू ओर उदै मुखचँद की चाँदनी चारु निहार ले री ।
बलि जो पै अधीन भयो पिय प्यारो तो एतो बिचार बिचारि ले री ।
कवि ठाकुर चूकि गयो जो गोपाल तो तैँ बिगरी को सुधार ले री ।
अब रैहै न रैहै यही समयो बहती नदी पाँव पखारि ले री ॥
ठाकुर का यह दुर्लभ छन्द श्री राजुल महरोत्रा के संग्रह से उपलब्ध हुआ है।