भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
धनि हैँगे वे तात औ मात जयो जिन देह धरी सो घरी धनि हैं / ठाकुर
Kavita Kosh से
धनि हैँगे वे तात औ मात जयो जिन देह धरी सो घरी धनि हैँ ।
धनि हैँ दृग जेऊ तुम्हैँ दरसैँ परसैँ कर तेऊ बड़े धनि हैँ ।
धनि हैँ जेहि ठाकुर ग्राम बसो जँह डोली लली सो गली धनि हैँ ।
धनि हैँ धनि हैँ धनि तेरो हितू जेहि की तू धनी सो धनी धनि हैँ ॥
ठाकुर का यह दुर्लभ छन्द श्री राजुल महरोत्रा के संग्रह से उपलब्ध हुआ है।

