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धुँधली चाँदनी / अज्ञेय
Kavita Kosh से
दिन छिपे
मलिना गये थे रूप
उन को चाँदनी नहला गयी।
थक गयी थी याद संकुल लोक में
उमड़ती धुन्ध फिर सहला गयी।
बोझ से दब घुट रही थी भावना, पर
प्रकृति यों बहला गयी।
फिर, सलोने, माँग तेरी
कसमसाती चेतना पर
छा गयी।

