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बिछुड़ के तुमसे / आत्म-रति तेरे लिये / रामस्वरूप ‘सिन्दूर’

बिछुड़ के तुमसे एक उम्र मैं उदास रहा,
ख़ुदी से दूर, बेखुदी के आसपास रहा!

न ग़मगुसार रहा जो, न गमगियास रहा,
जुनेने-शौक के धोखे में बदहवास रहा!

उसे कहूँ तो किस तरह से कहूँ बेगाना,
न दूर-दूर रहा वो, न पास-पास रहा!

तमाम रंग भर दिये जहान में जिसने,
वो रंगरेज, यहाँ जोगिया लिबास रहा!

न मैंने देखे कभी तख्तो-ताज़ के सपने,
तमाम उम्र कोहेनूर मेरे पास रहा!

किसे पता है कि ‘सिन्दूर’ की निगाहों में,
न कोई आम रहा, औ’ न कोई ख़ास रहा!