बिछुड़ के तुमसे एक उम्र मैं उदास रहा,
ख़ुदी से दूर, बेखुदी के आसपास रहा!
न ग़मगुसार रहा जो, न गमगियास रहा,
जुनेने-शौक के धोखे में बदहवास रहा!
उसे कहूँ तो किस तरह से कहूँ बेगाना,
न दूर-दूर रहा वो, न पास-पास रहा!
तमाम रंग भर दिये जहान में जिसने,
वो रंगरेज, यहाँ जोगिया लिबास रहा!
न मैंने देखे कभी तख्तो-ताज़ के सपने,
तमाम उम्र कोहेनूर मेरे पास रहा!
किसे पता है कि ‘सिन्दूर’ की निगाहों में,
न कोई आम रहा, औ’ न कोई ख़ास रहा!