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मुद्दत हो गई साज़-ए-मोहब्बत खोल दे अब ये राज़ / जगन्नाथ आज़ाद

मुद्दत हो गई साज़-ए-मोहब्बत खोल दे अब ये राज़
वो मेरी आवाज़ हैं बाहों में उन की आवाज़

कितनी मनाज़िल तय कर आया मेरा शौक़-ए-नियाज़
ऐ नज़रों से छुपने वाले अब तो दे आवाज़

क्यूँ हर गाम पे मेरा दिल है सजदों पे मजबूर
क्या नज़दीक कहीं है तेरी जलवा-गाह-ए-नाज़

असल में एक ही कैफ़ियत की दो तस्वीरें हैं
तेरा किब्र ओ नाज़ हो या हो मेरा जज़्ब-ए-नियाज़