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यूँ इक रात चाँद मेरे छत बसर किए / क्षेत्र बहादुर सुनुवार

यूँ इक रात
चाँद मेरे छत
बसर किए।
मुसलसल
रात ढलती रही
हसरतो
के कारवाँ लिए,
सितारे झिलमिलाते रहे
मेरे परेशानियों के साथ,
कभी कोई टूटता तारा
बर्क़-ए-ग़म-सा लहराता,
ख़यालो को मोअत्तर
करती शोख हवाएँ
बादलों को सहलाता रहा,
खामोशी के पनाह में
लावारिश से मेरे ख़्वाब
थक चुके हैं।
अँधेरे को चीरता
हरेक नूर चाँदनी का
मेरे ग़मो को
चिढ़ाता रहा।
ख़ुशी रोती रही
शबनमी
अश्क लिए।
यूँ इक रात
चाँद मेरे छत
बसर किए।