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लॉकडाउन सभ्यता की साँस का / देवी प्रसाद मिश्र

लॉकडाउन सभ्यता की साँस का :
मैं कहूँ कि क्यों हवा में बात है

करो न कह रहा है एक मेहनतकश दूसरे से कुछ करो न
कि जो भी है औ’ जैसा है वो वैसा क्यों रहे

काम यह कैसा कि जिसमें और वंचित हम
करो न कह रही है बेटियों से माँ : तमन्ना, आलिया

दाल बीनो भात का डोंगा खँगालो चाय दे दो
कुर्तियाँ सिल दो बहन की

कूट कर रख लो मिरिच का पाउडर
कि मामू भी छुए तो झोंक देना आँख में

करो न कह रहा योगी
कि कर लो योग

जागो हो गई उजली सुबह मुझे दिखता अँधेरा
करो न सोचते बैठे धुएँ में एक कहता है

कि कैसे आततायी को हटा दें
और ईश्वर आके ख़ुद

स्वीकार कर ले मैं नहीं हूँ
काल-सीमित जनविमुख शासक-समर्थक युद्धप्रिय

धर्मग्रंथों के नियम-निर्देश से
बना ले फ़ासले रे ओ क़लमघिस,

तू अगर जिद्दतपसंद
करो न वह कि जो भी ठीक हो

पिता कहते स्वप्न में माँ। हाँ…
ठीक क्या है नौकरी तनख़्वाह या सबवर्ट करने की असहमति

और बदले में मिला दारिद्र्य का ख़ाली टिफ़िन जब खोलता हूँ
भाप-सी औ’ बास-सी कुछ आस-सी आती है बाहर

करो न
मंद-सी आवाज़ इच्छा की

कामना से भरा कमरा मत्यु से
और कविता से अमरता से