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घुटन से भरी-भरी / विजय किशोर मानव
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05:58, 20 मार्च 2011
रद्दी से हम
धूल भरे वातायन से लेते दम
नत्थी
-
सा हो गया अहम अपना
मिलती हैं चुंबन से
कराहती शिराएँ
हवा
-
हवा हो जाता
आँखों का गीलापन
जीने में कुछ ऐसे शामिल है विज्ञापन
दलदल में फँसे हुए पाँव हैं
मुँह चिढा-चिढा जाती
सिर फिरी
सिरफिरी
हवाएँ
</poem>
अनिल जनविजय
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