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10 जुलाई {{KKGlobal}}
{{KKRachna
|रचनाकार=वीरेन्द्र वत्स
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|संग्रह=
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<poem>
अदब से सिर झुकाए जो खड़े थे
उन्हें भी वार करना आ गया है
समेटो ज़ालिमो दूकान अपनी
उन्हें व्यापार करना आ गया है
दिलों में फड़फड़ाती आरज़ू का
उन्हें इज़हार करना आ गया है
तुम्हारी बात पर जो मर-मिटे थे
उन्हें इनकार करना आ गया है
अपने वक़्त पर अपनी ज़मीं पर
उन्हें अधिकार करना आ गया है
</poem>