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हमारे घर में कभी सायबान पड़ता नहीं / मुज़फ़्फ़र हनफ़ी



हमारे घर में कभी सायबान पड़ता नहीं
ये वो ज़मीं है जहाँ आसमान पड़ता नही

पड़ाव करते चले राह में तो चलना क्या
सफ़र ही क्या है अगर हफ़्तख़ान<ref>वो सात मंज़िलें जो रुस्तम को तय करनी पड़ी थीं</ref> पड़ता नहीं

बुझानी होगी हमें ख़ुद ही अपने घर की आग
कहीं से आएगी इमदाद<ref>सहायता</ref> जान पड़ता नहीं

मज़े में हो जो तुम्हें बेज़मीन<ref>भूमिहीन</ref> रक्खा है
कि फ़स्ल उगाते नहीं हो लगान पड़ता नहीं

अता ख़ुलूस<ref>निष्कपटता,निश्छलता, सत्यता</ref> ने की है यक़ीन<ref>विश्वास</ref> की दौलत
गुमान<ref>शंका, भ्रम</ref> उसके मिरे दरमियान पड़ता नहीं

हम अहतिजाज<ref>अपने अहित के लिए अहितकर्ता से रोष प्रकट करना, वाद-विवाद , तर्क -वितर्क</ref> किसी रंग में नहीं करते
हमारे ख़ून में कोई निशान पड़ता नहीं

बहत्तरों में उसे भी तलाश कर लेना
मुबाहिसे<ref>वाद विवाद</ref> में मिरा ख़ानदान पड़ता नहीं

शब्दार्थ
<references/>