भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

है बसन्ती शाम / अमरकांत कुमर

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

है बसन्ती शाम, आओ ना नदी के घाट पर
प्यार की दो बात करके चले जाना बाट पर॥

हम पथिक हैं, तुम पथिक हो, हम थके हैं, तुम थकित हो
कुछ भरोसा हमें दे दो, कुछ दिलाशा तुम भी ले लो,
ओ सलोनी साँवली, मिलते हैं हम फ़िर हाट पर॥ है बसन्ती

रोजमर्रे की चुभन है, चरमराया-सा गगन है
थक गया-सा मेरा मन है, पेट की जलती अगन है ,
चुरा लो कुछ पल यहाँ से नाचते नयी थाट पर॥ है बसन्ती

कुँई की ताज़ा कली है, यह कमल-वन में पली है,
पारिजातों की झरी है, सुर-सुरभि वासित भली है ,
टिकोलों की महक, महुए की टभक, हम खाट पर॥ है बसन्ती

महक उट्ठे पणष-जामुन, चैतियों की मधुर-सी धुन
करवटों की रात है सुन, पलक सपने रही है बुन
कूकती है कोयलिया, मीठे स्वरों की बाँट पर॥ है बसन्ती