|सारणी=दोहावली / कबीर
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अब तौ जूझया ही बरगै, मुडि चल्यां घर दूर ।
सिर साहिबा कौ सौंपता, सोंच न कीजै सूर ॥ 401 ॥
अब तौ जूझया ही बरगैकबीर घोड़ा प्रेम का, मुडि चल्यां घर दूर चेतनि चाढ़ि असवार । <BR/>सिर साहिबा कौ सौंपताग्यान खड़ग गहि काल सिरि, सोंच न कीजै सूर भली मचाई मार ॥ 401 402 ॥ <BR/><BR/>
कबीर घोड़ा प्रेम काहरि सब कूँ भजै, चेतनि चाढ़ि असवार हरि कूँ भजै न कोइ । <BR/>ग्यान खड़ग गहि काल सिरिजब लग आस सरीर की, भली मचाई मार तब लग दास न होइ ॥ 402 403 ॥ <BR/><BR/>
कबीर सिर साटें हरि सब कूँ भजैसेवेये, हरि कूँ भजै न कोइ छांड़ि जीव की बाणि । <BR/>जब लग आस सरीर कीजे सिर दीया हरि मिलै, तब लग दास लगि हाणि न होइ जाणि ॥ 403 404 ॥ <BR/><BR/>
सिर साटें हरि सेवेये, छांड़ि जीव की बाणि । <BR/>जे सिर दीया हरि मिलै, तब लगि हाणि न जाणि ॥ 404 ॥ <BR/><BR/>जेते तारे रैणि के, तेतै बैरी मुझ । <BR/>धड़ सूली सिर कंगुरै, तऊ न बिसारौ तुझ ॥ 405 ॥ <BR/><BR/>
आपा भेटियाँ हरि मिलै, हरि मेट् या सब जाइ । <BR/>अकथ कहाणी प्रेम की, कह्या न कोउ पत्याइ ॥ 406 ॥ <BR/><BR/>
जीवन थैं मरिबो भलौ, जो मरि जानैं कोइ । <BR/>मरनैं पहली जे मरै, जो कलि अजरावर होइ ॥ 407 ॥ <BR/><BR/>
कबीर मन मृतक भया, दुर्बल भया सरीर । <BR/>तब पैंडे लागा हरि फिरै, कहत कबीर कबीर ॥ 408 ॥ <BR/><BR/>
रोड़ा है रहो बाट का, तजि पाषंड अभिमान । <BR/>ऐसा जे जन है रहै, ताहि मिलै भगवान ॥ 409 ॥ <BR/><BR/>
कबीर चेरा संत का, दासनि का परदास । <BR/>कबीर ऐसैं होइ रक्षा, ज्यूँ पाऊँ तलि घास ॥ 410 ॥ <BR/><BR/>
अबरन कों का बरनिये, भोपै लख्या न जाइ । <BR/>अपना बाना वाहिया, कहि-कहि थाके भाइ ॥ 411 ॥ <BR/><BR/>
जिसहि न कोई विसहि तू, जिस तू तिस सब कोई । <BR/>दरिगह तेरी सांइयाँ, जा मरूम कोइ होइ ॥ 412 ॥ <BR/><BR/>
साँई मेरा वाणियां, सहति करै व्यौपार । <BR/>बिन डांडी बिन पालड़ै तौले सब संसार ॥ 413 ॥ <BR/><BR/>
झल बावै झल दाहिनै, झलहि माहि त्योहार । <BR/>आगै-पीछै झलमाई, राखै सिरजनहार ॥ 414 ॥ <BR/><BR/>
एसी बाणी बोलिये, मन का आपा खोइ । <BR/>औरन को सीतल करै, आपौ सीतल होइ ॥ 415 ॥ <BR/><BR/>कबीर हरि कग नाव सूँ प्रीति रहै इकवार । <BR/>तौ मुख तैं मोती झड़ै हीरे अन्त न पार ॥ 416 ॥ <BR/><BR/>
बैरागी बिरकत भला, गिरही चित्त उदार कबीर हरि कग नाव सूँ प्रीति रहै इकवार । <BR/>दुहुँ चूका रीता पड़ै वाकूँ वार तौ मुख तैं मोती झड़ै हीरे अन्त न पार ॥ 417 416 ॥ <BR/><BR/>
कोई एक राखै सावधांबैरागी बिरकत भला, चेतनि पहरै जागि गिरही चित्त उदार । <BR/>बस्तर बासन सूँ खिसै, चोर दुहुँ चूका रीता पड़ै वाकूँ वार न सकई लागि पार ॥ 418 417 ॥ <BR/><BR/>
बारी-बारी आपणींकोई एक राखै सावधां, चले पियारे म्यंत चेतनि पहरै जागि । <BR/>तेरी बारी रे जियाबस्तर बासन सूँ खिसै, नेड़ी आवै निंत चोर न सकई लागि ॥ 419 418 ॥ <BR/><BR/>
पदारथ पेलि करिबारी-बारी आपणीं, कंकर लीया हाथि चले पियारे म्यंत । <BR/>जोड़ी बिछटी हंस कीतेरी बारी रे जिया, पड़या बगां के साथि नेड़ी आवै निंत ॥ 420 419 ॥ <BR/><BR/>
निंदक नियारे राखियेपदारथ पेलि करि, आंगन कुटि छबाय कंकर लीया हाथि । <BR/>बिन पाणी बिन सबुनाजोड़ी बिछटी हंस की, निरमल करै सुभाय पड़या बगां के साथि ॥ 421 420 ॥ <BR/><BR/>
गोत्यंद के गुण बहुत हैंनिंदक नियारे राखिये, लिखै जु हिरदै मांहि आंगन कुटि छबाय । <BR/>डरता बिन पाणी जा पीऊंबिन सबुना, मति वै धोये जाहि निरमल करै सुभाय ॥ 422 421 ॥ <BR/><BR/>
जो ऊग्या सो आंथवैगोत्यंद के गुण बहुत हैं, फूल्या सो कुमिलाइ लिखै जु हिरदै मांहि । <BR/>जो चिणियां सो ढहि पड़ैडरता पाणी जा पीऊं, जो आया सो जाइ मति वै धोये जाहि ॥ 423 422 ॥ <BR/><BR/>
सीतलता तब जाणियेंजो ऊग्या सो आंथवै, समिता रहै समाइ फूल्या सो कुमिलाइ । <BR/>पष छाँड़ै निरपष रहैजो चिणियां सो ढहि पड़ै, सबद न देष्या जो आया सो जाइ ॥ 424 423 ॥ <BR/><BR/>
खूंदन तौ धरती सहैसीतलता तब जाणियें, बाढ़ सहै बनराइ समिता रहै समाइ । <BR/>कुसबद तौ हरिजन सहैपष छाँड़ै निरपष रहै, दूजै सह्या सबद न देष्या जाइ ॥ 425 424 ॥ <BR/><BR/>
नीर पियावत क्या फिरैखूंदन तौ धरती सहै, सायर घर-घर बारि बाढ़ सहै बनराइ । <BR/>जो त्रिषावन्त होइगाकुसबद तौ हरिजन सहै, सो पीवेगा झखमारि ॥ 426 ॥ <BR/><BR/>कबीर सिरजन हार बिन, मेरा हित दूजै सह्या न कोइ । <BR/>गुण औगुण बिहणै नहीं, स्वारथ बँधी लोइ जाइ ॥ 427 425 ॥ <BR/><BR/>
हीरा परा बजार मेंनीर पियावत क्या फिरै, रहा छार लपिटाइ सायर घर-घर बारि । <BR/>ब तक मूरख चलि गये पारखि लिया उठाइ जो त्रिषावन्त होइगा, सो पीवेगा झखमारि ॥ 426 ॥ कबीर सिरजन हार बिन, मेरा हित न कोइ । गुण औगुण बिहणै नहीं, स्वारथ बँधी लोइ ॥ 428 427 ॥ <BR/><BR/>
सुरति करौ मेरे साइयांहीरा परा बजार में, हम हैं भोजन माहिं रहा छार लपिटाइ । <BR/>आपे ही बहि जाहिंगे, जौ नहिं पकरौ बाहिं ब तक मूरख चलि गये पारखि लिया उठाइ ॥ 429 428 ॥ <BR/><BR/>
क्या मुख लै बिनती करौंसुरति करौ मेरे साइयां, लाज आवत है मोहि हम हैं भोजन माहिं । <BR/>तुम देखत ओगुन करौंआपे ही बहि जाहिंगे, कैसे भावों तोहि जौ नहिं पकरौ बाहिं ॥ 430 429 ॥ <BR/><BR/>
सब काहू का लीजियेक्या मुख लै बिनती करौं, साचां सबद निहार लाज आवत है मोहि । <BR/>पच्छपात ना कीजिये कहै कबीर विचार तुम देखत ओगुन करौं, कैसे भावों तोहि ॥ 431 430 ॥ <BR/><BR/>
सब काहू का लीजिये, साचां सबद निहार । पच्छपात ना कीजिये कहै कबीर विचार ॥ गुरु के विषय में दोहे 431 ॥ <BR/><BR/>
गुरु सों ज्ञान जु लीजिये सीस दीजिए दान । <BR/>बहुतक भोदूँ बहि गये, राखि जीव अभिमान ॥ 432 गुरु के विषय में दोहे ॥ <BR/><BR/>
गुरु को कीजै दण्डव कोटि-कोटि परनाम सों ज्ञान जु लीजिये सीस दीजिए दान । <BR/>कीट न जाने भृगं कोबहुतक भोदूँ बहि गये, गुरु करले आप समान राखि जीव अभिमान ॥ 433 432 ॥ <BR/><BR/>
कुमति कीच चेला भरा, गुरु ज्ञान जल होय को कीजै दण्डव कोटि-कोटि परनाम । <BR/>जनम-जनम का मोरचाकीट न जाने भृगं को, पल में डारे धोय गुरु करले आप समान ॥ 434 433 ॥ <BR/><BR/>
गुरु पारस को अन्तरोकुमति कीच चेला भरा, जानत है सब सन्त गुरु ज्ञान जल होय । <BR/>वह लोहा कंचन करेजनम-जनम का मोरचा, ये करि लेय महन्त पल में डारे धोय ॥ 435 434 ॥ <BR/><BR/>
गुरु की आज्ञा आवैपारस को अन्तरो, गुरु की आज्ञा जाय जानत है सब सन्त । <BR/>कहैं कबीर सो सन्त हैंवह लोहा कंचन करे, आवागमन नशाय ये करि लेय महन्त ॥ 436 435 ॥ <BR/><BR/>
गुरु की आज्ञा आवै, गुरु की आज्ञा जाय ।
कहैं कबीर सो सन्त हैं, आवागमन नशाय ॥ 436 ॥
जो गुरु बसै बनारसी, सीष समुन्दर तीर । <BR/>
एक पलक बिसरे नहीं, जो गुण होय शरीर ॥ 437 ॥ <BR/><BR/>
जो गुरु समान दाता नहींबसै बनारसी, याचक सीष समान समुन्दर तीर । <BR/>तीन लोक की सम्पदाएक पलक बिसरे नहीं, सो गुरु दीन्ही दान जो गुण होय शरीर ॥ 438 437 ॥ <BR/><BR/>
गुरु कुम्हार सिष कुंभ हैसमान दाता नहीं, गढ़ि-गढ़ि काढ़ै खोट याचक सीष समान । <BR/>अन्तर हाथ सहार दैतीन लोक की सम्पदा, बाहर बाहै चोट सो गुरु दीन्ही दान ॥ 439 438 ॥ <BR/><BR/>
गुरु को सिर राखियेकुम्हार सिष कुंभ है, चलिये आज्ञा माहिं गढ़ि-गढ़ि काढ़ै खोट । <BR/>कहैं कबीर ता दास कोअन्तर हाथ सहार दै, तीन लोक भय नहिं बाहर बाहै चोट ॥ 440 439 ॥ <BR/><BR/>
लच्छ कोष जो गुरु बसैको सिर राखिये, दीजै सुरति पठाय चलिये आज्ञा माहिं । <BR/>शब्द तुरी बसवार हैकहैं कबीर ता दास को, छिन आवै छिन जाय तीन लोक भय नहिं ॥ 441 440 ॥ <BR/><BR/>
लच्छ कोष जो गुरु मूरति गति चन्द्रमाबसै, सेवक नैन चकोर दीजै सुरति पठाय । <BR/>आठ पहर निरखता रहेशब्द तुरी बसवार है, गुरु मूरति की ओर छिन आवै छिन जाय ॥ 442 441 ॥ <BR/><BR/>
गुरु सों प्रीति निबाहियेमूरति गति चन्द्रमा, जेहि तत निबटै सन्त सेवक नैन चकोर । <BR/>प्रेम बिना ढिग दूर हैआठ पहर निरखता रहे, प्रेम निकट गुरु कन्त मूरति की ओर ॥ 443 442 ॥ <BR/><BR/>
गुरु बिन ज्ञान न उपजैसों प्रीति निबाहिये, गुरु बिन मिलै न मोष जेहि तत निबटै सन्त । <BR/>गुरु बिन लखै न सत्य कोप्रेम बिना ढिग दूर है, प्रेम निकट गुरु बिन मिटे न दोष कन्त ॥ 444 443 ॥ <BR/><BR/>
गुरु मूरति आगे खड़ीबिन ज्ञान न उपजै, दुनिया भेद कछु नाहिं गुरु बिन मिलै न मोष । <BR/>उन्हीं कूँ परनाम करिगुरु बिन लखै न सत्य को, सकल तिमिर मिटि जाहिं गुरु बिन मिटे न दोष ॥ 445 444 ॥ <BR/><BR/>
गुरु शरणागति छाड़ि केमूरति आगे खड़ी, करै भरौसा और दुनिया भेद कछु नाहिं । <BR/>सुख सम्पति की कह चलीउन्हीं कूँ परनाम करि, नहीं परक ये ठौर सकल तिमिर मिटि जाहिं ॥ 446 445 ॥ <BR/><BR/>
सिष खांडा गुरु भसकलाशरणागति छाड़ि के, चढ़ै शब्द खरसान करै भरौसा और । <BR/>शब्द सहै सम्मुख रहैसुख सम्पति की कह चली, निपजै शीष सुजान नहीं परक ये ठौर ॥ 447 446 ॥ <BR/><BR/>
ज्ञान समागम प्रेम सुखसिष खांडा गुरु भसकला, दया भक्ति विश्वास चढ़ै शब्द खरसान । <BR/>गुरु सेवा ते पाइयेशब्द सहै सम्मुख रहै, सद्गुरु चरण निवास निपजै शीष सुजान ॥ 448 447 ॥ <BR/><BR/>
अहं अग्नि निशि दिन जरैज्ञान समागम प्रेम सुख, गुरु सो चाहे मान दया भक्ति विश्वास । <BR/>ताको जम न्योता दियागुरु सेवा ते पाइये, होउ हमार मेहमान सद्गुरु चरण निवास ॥ 449 448 ॥ <BR/><BR/>
जैसी प्रीति कुटुम्ब कीअहं अग्नि निशि दिन जरै, तैसी गुरु सों होय सो चाहे मान । <BR/>कहैं कबीर ता दास काताको जम न्योता दिया, पला न पकड़ै कोय होउ हमार मेहमान ॥ 450 449 ॥ <BR/><BR/>
मूल ध्यान गुरु रूप हैजैसी प्रीति कुटुम्ब की, मूल पूजा तैसी गुरु पाँव सों होय । <BR/>मूल नाम गुरु वचन हैकहैं कबीर ता दास का, मूल सत्य सतभाव पला न पकड़ै कोय ॥ 451 450 ॥ <BR/><BR/>
पंडित पाढ़ि गुनि पचि मुयेमूल ध्यान गुरु रूप है, मूल पूजा गुरु बिना मिलै न ज्ञान पाँव । <BR/>ज्ञान बिना नहिं मुक्ति मूल नाम गुरु वचन है, सत्त शब्द परनाम मूल सत्य सतभाव ॥ 452 451 ॥ <BR/><BR/>
सोइ-सोइ नाच नचाइयेपंडित पाढ़ि गुनि पचि मुये, जेहि निबहे गुरु प्रेम बिना मिलै न ज्ञान । <BR/>कहै कबीर गुरु प्रेम बिनज्ञान बिना नहिं मुक्ति है, कतहुँ कुशल नहि क्षेम सत्त शब्द परनाम ॥ 453 452 ॥ <BR/><BR/>
कहैं कबीर जजि भरम कोसोइ-सोइ नाच नचाइये, नन्हा है कर पीव जेहि निबहे गुरु प्रेम । <BR/>तजि अहं कहै कबीर गुरु चरण गहुप्रेम बिन, जमसों बाचै जीव कतहुँ कुशल नहि क्षेम ॥ 454 453 ॥ <BR/><BR/>
कोटिन चन्दा उगहीकहैं कबीर जजि भरम को, सूरज कोटि हज़ार नन्हा है कर पीव । <BR/>तीमिर तौ नाशै नहीं, बिन तजि अहं गुरु घोर अंधार चरण गहु, जमसों बाचै जीव ॥ 455 454 ॥ <BR/><BR/>
तबही गुरु प्रिय बैन कहिकोटिन चन्दा उगही, शीष बढ़ी चित प्रीत सूरज कोटि हज़ार । <BR/>ते रहियें तीमिर तौ नाशै नहीं, बिन गुरु सनमुखाँ कबहूँ न दीजै पीठ घोर अंधार ॥ 456 455 ॥ <BR/><BR/>
तन मन शीष निछावरैतबही गुरु प्रिय बैन कहि, दीजै सरबस प्रान शीष बढ़ी चित प्रीत । <BR/>कहैं कबीर ते रहियें गुरु प्रेम बिन, कितहूँ कुशल नहिं क्षेम सनमुखाँ कबहूँ न दीजै पीठ ॥ 457 456 ॥ <BR/><BR/>
जो गुरु पूरा होय तोतन मन शीष निछावरै, शीषहि लेय निबाहि दीजै सरबस प्रान । <BR/>शीष भाव सुत्त जानियेकहैं कबीर गुरु प्रेम बिन, सुत ते श्रेष्ठ शिष आहि कितहूँ कुशल नहिं क्षेम ॥ 458 457 ॥ <BR/><BR/>
भौ सागर की त्रास तेकजो गुरु पूरा होय तो, गुरु की पकड़ो बाँहि शीषहि लेय निबाहि । <BR/>गुरु बिन कौन उबारसीशीष भाव सुत्त जानिये, भौ जल धारा माँहि सुत ते श्रेष्ठ शिष आहि ॥ 459 458 ॥ <BR/><BR/>
करै दूरि अज्ञानताभौ सागर की त्रास तेक, अंजन ज्ञान सुदेय गुरु की पकड़ो बाँहि । <BR/>बलिहारी वे गुरुन की हंस उबारि जुलेय गुरु बिन कौन उबारसी, भौ जल धारा माँहि ॥ 460 459 ॥ <BR/><BR/>
सुनिये सन्तों साधु मिलिकरै दूरि अज्ञानता, कहहिं कबीर बुझाय अंजन ज्ञान सुदेय । <BR/>जेहि विधि गुरु सों प्रीति छै कीजै सोई उपाय बलिहारी वे गुरुन की हंस उबारि जुलेय ॥ 461 460 ॥ <BR/><BR/>
अबुध सुबुध सुत मातु पितुसुनिये सन्तों साधु मिलि, सबहि करै प्रतिपाल कहहिं कबीर बुझाय । <BR/>अपनी और निबाहिये, सिख सुत गहि निज चाल जेहि विधि गुरु सों प्रीति छै कीजै सोई उपाय ॥ 462 461 ॥ <BR/><BR/>
लौ लागी विष भागियाअबुध सुबुध सुत मातु पितु, कालख डारी धोय सबहि करै प्रतिपाल । <BR/>कहैं कबीर गुरु साबुन सोंअपनी और निबाहिये, कोई इक ऊजल होय सिख सुत गहि निज चाल ॥ 463 462 ॥ <BR/><BR/>
राजा की चोरी करेलौ लागी विष भागिया, रहै रंग की ओट कालख डारी धोय । <BR/>कहैं कबीर क्यों उबरैगुरु साबुन सों, काल कठिन की चोट कोई इक ऊजल होय ॥ 464 463 ॥ <BR/><BR/>
राजा की चोरी करे, रहै रंग की ओट । कहैं कबीर क्यों उबरै, काल कठिन की चोट ॥ 464 ॥ साबुन बिचारा क्या करे, गाँठे राखे मोय । <BR/>जल सो अरसां नहिं, क्यों कर ऊजल होय ॥ 465 ॥ <BR/><BR/>
॥ सतगुरु के विषय मे दोहे ॥
सत्गुरु तो सतभाव है, जो अस भेद बताय । <BR/>धन्य शीष धन भाग तिहि जो ऐसी सुधि पाय ॥ 466 ॥ <BR/><BR/> सतगुरु शरण न आवहीं, फिर फिर होय अकाज । <BR/>जीव खोय सब जायेंगे काल तिहूँ पुर राज ॥ 467 ॥ <BR/><BR/> सतगुरु सम कोई नहीं सात दीप नौ खण्ड । <BR/>तीन लोक न पाइये, अरु इक्कीस ब्रह्म्ण्ड ॥ 468 ॥ <BR/><BR/>
सतगुरु मिला जु जानियेशरण न आवहीं, ज्ञान उजाला फिर फिर होय अकाज । <BR/>भ्रम का भांड तोड़ि करि, रहै निराला होय जीव खोय सब जायेंगे काल तिहूँ पुर राज ॥ 469 467 ॥ <BR/><BR/>
सतगुरु मिले जु सब मिले, न तो मिला न कोय सम कोई नहीं सात दीप नौ खण्ड । <BR/>माता-पिता सुत बाँधवा ये तो घर घर होय तीन लोक न पाइये, अरु इक्कीस ब्रह्म्ण्ड ॥ 470 468 ॥ <BR/><BR/>
जेहि खोजत ब्रह्मा थकेसतगुरु मिला जु जानिये, सुर नर मुनि अरु देव ज्ञान उजाला होय । <BR/>कहै कबीर सुन साधवाभ्रम का भांड तोड़ि करि, करु सतगुरु की सेव रहै निराला होय ॥ 471 469 ॥ <BR/><BR/>
मनहिं दिया निज सतगुरु मिले जु सब दियामिले, मन से संग शरीर न तो मिला न कोय । <BR/>अब देवे को क्या रहा, यों कयि कहहिं कबीर माता-पिता सुत बाँधवा ये तो घर घर होय ॥ 472 470 ॥ <BR/><BR/>
सतगुरु को माने नहीजेहि खोजत ब्रह्मा थके, अपनी कहै बनाय सुर नर मुनि अरु देव । <BR/>कहै कबीर क्या कीजियेसुन साधवा, और मता मन जाय करु सतगुरु की सेव ॥ 473 471 ॥ <BR/><BR/>
जग में युक्ति अनूप हैमनहिं दिया निज सब दिया, साधु मन से संग गुरु ज्ञान शरीर । <BR/>तामें निपट अनूप हैअब देवे को क्या रहा, सतगुरु लागा कान यों कयि कहहिं कबीर ॥ 474 472 ॥ <BR/><BR/>
कबीर समूझा कहत हैसतगुरु को माने नही, पानी थाह बताय अपनी कहै बनाय । <BR/>ताकूँ सतगुरु का करेकहै कबीर क्या कीजिये, जो औघट डूबे और मता मन जाय ॥ 475 473 ॥ <BR/><BR/>
बिन सतगुरु उपदेशजग में युक्ति अनूप है, सुर नर मुनि नहिं निस्तरे साधु संग गुरु ज्ञान । <BR/>ब्रह्मा-विष्णुतामें निपट अनूप है, महेश और सकल जिव को गिनै सतगुरु लागा कान ॥ 476 474 ॥ <BR/><BR/>
केते पढ़ि गुनि पचि भुएकबीर समूझा कहत है, योग यज्ञ तप लाय पानी थाह बताय । <BR/>बिन ताकूँ सतगुरु पावै नहीं, कोटिन का करे उपाय , जो औघट डूबे जाय ॥ 477 475 ॥ <BR/><BR/>
डूबा औघट न तरैबिन सतगुरु उपदेश, मोहिं अंदेशा होय सुर नर मुनि नहिं निस्तरे । <BR/>लोभ नदी की धार मेंब्रह्मा-विष्णु, कहा पड़ो नर सोइ महेश और सकल जिव को गिनै ॥ 478 476 ॥ <BR/><BR/>
सतगुरु खोजो सन्तकेते पढ़ि गुनि पचि भुए, जोव काज को चाहहु योग यज्ञ तप लाय । <BR/>मेटो भव को अंकबिन सतगुरु पावै नहीं, आवा गवन निवारहु कोटिन करे उपाय ॥ 479 477 ॥ <BR/><BR/>
करहु छोड़ कुल लाजडूबा औघट न तरै, जो सतगुरु उपदेश है मोहिं अंदेशा होय । <BR/>होये सब जिव काजलोभ नदी की धार में, निश्चय करि परतीत करू कहा पड़ो नर सोइ ॥ 480 478 ॥ <BR/><BR/>
यह सतगुरु उपदेश हैखोजो सन्त, जो मन माने परतीत जोव काज को चाहहु । <BR/>करम भरम सब त्यागि के, चलै सो मेटो भव जल जीत को अंक, आवा गवन निवारहु ॥ 481 479 ॥ <BR/><BR/>
जग सब सागर मोहिंकरहु छोड़ कुल लाज, कहु कैसे बूड़त तेरे जो सतगुरु उपदेश है । <BR/>गहु सतगुरु की बाहिं जो जल थल रक्षा करै होये सब जिव काज, निश्चय करि परतीत करू ॥ 482 480 ॥ <BR/><BR/>
यह सतगुरु उपदेश है, जो मन माने परतीत ।
करम भरम सब त्यागि के, चलै सो भव जल जीत ॥ 481 ॥
जग सब सागर मोहिं, कहु कैसे बूड़त तेरे । गहु सतगुरु की बाहिं जो जल थल रक्षा करै ॥ गुरु पारख पर दोहे 482 ॥ <BR/><BR/>
जानीता बूझा नहीं बूझि किया नहीं गौन । <BR/>
अन्धे को अन्धा मिला, राह बतावे कौन ॥ 483 ॥ <BR/><BR/>
जाका गुरु है आँधरा, चेला खरा निरन्ध । <BR/>अन्धे को अन्धा मिला, पड़ा काल के फन्द ॥ 484 गुरु पारख पर दोहे ॥ <BR/><BR/>
गुरु लोभ शिष लालची, दोनों खेले दाँव जानीता बूझा नहीं बूझि किया नहीं गौन । <BR/>दोनों बूड़े बापुरेअन्धे को अन्धा मिला, चढ़ि पाथर की नाँव राह बतावे कौन ॥ 485 483 ॥ <BR/><BR/>
आगे अंधा कूप मेंजाका गुरु है आँधरा, दूजे लिया बुलाय चेला खरा निरन्ध । <BR/>दोनों बूडछे बापुरेअन्धे को अन्धा मिला, निकसे कौन उपाय पड़ा काल के फन्द ॥ 486 484 ॥ <BR/><BR/>
गुरु किया है देह कालोभ शिष लालची, सतगुरु चीन्हा नाहिं दोनों खेले दाँव । <BR/>भवसागर के जाल मेंदोनों बूड़े बापुरे, फिर फिर गोता खाहि चढ़ि पाथर की नाँव ॥ 487 485 ॥ <BR/><BR/>
पूरा सतगुरु न मिलाआगे अंधा कूप में, सुनी अधूरी सीख दूजे लिया बुलाय । <BR/>स्वाँग यती का पहिनि केदोनों बूडछे बापुरे, घर घर माँगी भीख निकसे कौन उपाय ॥ 488 486 ॥ <BR/><BR/>
कबीर गुरु किया है घाट देह का, हाँटू बैठा चेल सतगुरु चीन्हा नाहिं । <BR/>मूड़ मुड़ाया साँझ कूँ गुरु सबेरे ठेल भवसागर के जाल में, फिर फिर गोता खाहि ॥ 489 487 ॥ <BR/><BR/>
गुरु-गुरु में भेद हैपूरा सतगुरु न मिला, गुरु-गुरु में भाव सुनी अधूरी सीख । <BR/>सोइ गुरु नित बन्दियेस्वाँग यती का पहिनि के, शब्द बतावे दाव घर घर माँगी भीख ॥ 490 488 ॥ <BR/><BR/>
जो कबीर गुरु ते भ्रम न मिटेहै घाट का, भ्रान्ति न जिसका जाय हाँटू बैठा चेल । <BR/>सो मूड़ मुड़ाया साँझ कूँ गुरु झूठा जानिये, त्यागत देर न लाय सबेरे ठेल ॥ 491 489 ॥ <BR/><BR/>
झूठे गुरु के पक्ष की-गुरु में भेद है, तजत न कीजै वार गुरु-गुरु में भाव । <BR/>द्वार न पावै शब्द कासोइ गुरु नित बन्दिये, भटके बारम्बार शब्द बतावे दाव ॥ 492 490 ॥ <BR/><BR/>
सद्गुरु ऐसा कीजिये, लोभ मोह जो गुरु ते भ्रम नाहिं न मिटे, भ्रान्ति न जिसका जाय । <BR/>दरिया सो न्यारा रहेगुरु झूठा जानिये, दीसे दरिया माहि त्यागत देर न लाय ॥ 493 491 ॥ <BR/><BR/>
कबीर बेड़ा सार काझूठे गुरु के पक्ष की, ऊपर लादा सार तजत न कीजै वार । <BR/>पापी द्वार न पावै शब्द का पापी गुरु, यो बूढ़ा संसार भटके बारम्बार ॥ 494 492 ॥ <BR/><BR/>
जो गुरु को तो गम नहींसद्गुरु ऐसा कीजिये, पाहन दिया बताय लोभ मोह भ्रम नाहिं । <BR/>शिष शोधे बिन सेइयादरिया सो न्यारा रहे, पार न पहुँचा जाए दीसे दरिया माहि ॥ 495 493 ॥ <BR/><BR/>
सोचे गुरु के पक्ष मेंकबीर बेड़ा सार का, मन को दे ठहराय ऊपर लादा सार । <BR/>चंचल से निश्चल भयापापी का पापी गुरु, नहिं आवै नहीं जाय यो बूढ़ा संसार ॥ 496 494 ॥ <BR/><BR/>
गु अँधियारी जानियेजो गुरु को तो गम नहीं, रु कहिये परकाश पाहन दिया बताय । <BR/>मिटि अज्ञाने ज्ञान देशिष शोधे बिन सेइया, गुरु नाम है तास पार न पहुँचा जाए ॥ 497 495 ॥ <BR/><BR/>
सोचे गुरु नाम है गम्य काके पक्ष में, शीष सीख ले सोय मन को दे ठहराय । <BR/>बिनु पद बिनु मरजाद नरचंचल से निश्चल भया, गुरु शीष नहिं कोय आवै नहीं जाय ॥ 498 496 ॥ <BR/><BR/>
गुरुवा तो घर फिरेगु अँधियारी जानिये, दीक्षा हमारी लेह रु कहिये परकाश । <BR/>कै बूड़ौ कै ऊबरोमिटि अज्ञाने ज्ञान दे, टका परदानी देह गुरु नाम है तास ॥ 499 497 ॥ <BR/><BR/>
गुरुवा तो सस्ता भयागुरु नाम है गम्य का, कौड़ी अर्थ पचास शीष सीख ले सोय । <BR/>अपने तन की सुधि नहींबिनु पद बिनु मरजाद नर, शिष्य करन की आस गुरु शीष नहिं कोय ॥ 500 498 ॥ <BR/><BR/>
गुरुवा तो घर फिरे, दीक्षा हमारी लेह ।
कै बूड़ौ कै ऊबरो, टका परदानी देह ॥ 499 ॥
{{KKPageNavigationगुरुवा तो सस्ता भया, कौड़ी अर्थ पचास । |पीछे= कबीर दोहावली / पृष्ठ ४ अपने तन की सुधि नहीं, शिष्य करन की आस ॥ 500 ॥ |आगे= [[कबीर दोहावली / पृष्ठ ६ |सारणी=दोहावली / कबीर}}अगला भाग >>]]