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{{KKRachna
|रचनाकार=अशोक चक्रधर
|संग्रह=सो तो है / अशोक चक्रधर
}}
{{KKCatKavita}}{{KKAnthologyMaa}}<poem>
नुक्कड़ पर माशो की माँ
 बेचती है टमाटर ।टमाटर।
चेहरे पर जितनी झुर्रियाँ हैं
 झल्ली में उतने ही टमाटर हैं ।हैं।
टमाटर नहीं हैं
 
वो सेव हैं,
 
सेव भी नहीं
 हीरे-मोती हैं ।हैं।
फटी मैली धोती से
 
एक-एक पोंछती है टमाटर,
 नुक्कड़ पर माशो की माँ ।माँ।
गाहक को मेहमान-सा देखती है
 
एकाएक हो जाती है काइयाँ
 
--आठाने पाउ
 
लेना होय लेउ
 नहीं जाउ ।जाउ।
मुतियाबिंद आँखों से
 
अठन्नी का ख़रा-खोटा देखती है
 
और
 
सुतली की तराजू पर
 
बेटी के दहेज-सा
 
एक-एक चढ़ाती है टमाटर
 नुक्कड़ पर माशो की माँ ।माँ।
--गाहक की तुष्टि होय
 
एक-एक चढ़ाती ही जाती है
 टमाटर ।टमाटर।
इतने चढ़ाती है टमाटर
 
कि टमाटर का पल्ला
 
ज़मीन छूता है
 उसका ही बूता है ।है।
सूर्य उगा-- आती है
 
सूर्य ढला-- जाती है
 
लाती है झल्ली में भरे हुए टमाटर
 नुक्कड़ पर माशो की माँ ।माँ।</poem>
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