{{KKRachna
|रचनाकार=सुमित्रानंदन पंत
|संग्रह=ग्राम्या / सुमित्रानंदन पंत
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अंधकार की गुहा सरीखी
:उन आँखों से डरता है मन,
भरा दूर तक उनमें दारुण
:दैन्य दुख का नीरव रोदन!
अह, अथाह नैराश्य, विवशता का
:उनमें भीषण सूनापन,
मानव के पाशव पीड़न का
:देतीं वे निर्मम विज्ञापन!
उन आँखों से डरता है मनफूट रहा उनसे गहरा आतंक,:क्षोभ, शोषण, संशय, भ्रम,भरा दूर तक डूब कालिमा में उनकी:कँपता मन, उनमें दारुनमरघट का तम!ग्रस लेती दर्शक को वहदैन्य दुख :दुर्ज्ञेय, दया की भूखी चितवन,झूल रहा उस छाया-पट में:युग युग का निरव रोदनजर्जर जन जीवन!
वह स्वाधीन किसान रहा,
:अभिमान भरा आँखों में इसका,
छोड़ उसे मँझधार आज
:संसार बहा कगार सदृश बहा बह खिसका!
लहराते वे खेत दृगों में
:हुया बेदखल बेदख़ल वह अब जिनसे,
हँसती थी उनके जीवन की
:हरियाली जिनके तृन तृन से!
हरियाली जिनके तृन-तृन से! आँखों ही में ही घुमा घूमा करता :वह उसकी आँखों का तारा,
कारकुनों की लाठी से जो
:गया जावानी में जवानी ही में मारा!
बिका दिया घर द्वार,
:महाजन ने न ब्याज की कौड़ी छोड़ी, रह-रह आँखों में चुभती वह :कुर्क हुई बरधों की जोड़ी!
उजरी उसके सिवा किसे कब
:पास दुहाने आने देती? अह, आँखों में नचा नाचा करती :उजड़ गई जो सुख की खेती! बिना दावा दवा दर्पन के घरनी :स्वरग चली, --आँखें आती आतीं भर, देख-रेख के बिना दुधमुँही :बिटिया दो दिन बाद गई मर!
घर में विधवा रही पतोहू,
:लछमी थी, यद्यपि पति घातिन, पकड़ मँगया मँगाया कोतवाल नें, :डूब कुऍं कुँए में मरी एक दिन! खैरख़ैर, पैर की जूती, जोरू :न सही एक, दूसरी आती,
पर जवान लड़के की सुध कर
:साँप लोटते, फटती छाती।छाती!
पिछले सुख की स्मृति आँखों में
:क्षण भर एक चमक है लाती,
तुरत शून्य में गड़ वह चितवन
:तीखी नोक सदृश बन जाती।
मानव की चेतना न ममता
:रहती तब आँखों में उस क्षण!
हर्ष, शोक, अपमान, ग्लानि,
:दुख दैन्य न जीवन का आकर्षण!
उस अवचेतन क्षण भर एक चमक है लातीमें मानो:वे सुदूर करतीं अवलोकनज्योति तमस के परदों पर:युग जीवन के पट का परिवर्तन!अंधकार की अतल गुहा सी:अह, उन आँखों से डरता मन,वर्ग सभ्यता के मंदिर केतुरत शून्य में गड़ वह चितवन:निचले तल की वे वातायन!
तीखी नोख सदृश बन जाती।रचनाकाल: जनवरी’ ४०</poem>