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| + | अह, अथाह नैराश्य, विवशता का | ||
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| + | मानव के पाशव पीड़न का | ||
| + | :देतीं वे निर्मम विज्ञापन! | ||
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| + | :क्षोभ, शोषण, संशय, भ्रम, | ||
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| + | ग्रस लेती दर्शक को वह | ||
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| + | झूल रहा उस छाया-पट में | ||
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| + | :अभिमान भरा आँखों में इसका, | ||
| + | छोड़ उसे मँझधार आज | ||
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| + | लहराते वे खेत दृगों में | ||
| + | :हुया बेदख़ल वह अब जिनसे, | ||
| + | हँसती थी उनके जीवन की | ||
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| + | :वह उसकी आँखों का तारा, | ||
| + | कारकुनों की लाठी से जो | ||
| + | :गया जवानी ही में मारा! | ||
| + | बिका दिया घर द्वार, | ||
| + | :महाजन ने न ब्याज की कौड़ी छोड़ी, | ||
| + | रह रह आँखों में चुभती वह | ||
| + | :कुर्क हुई बरधों की जोड़ी! | ||
| + | उजरी उसके सिवा किसे कब | ||
| + | :पास दुहाने आने देती? | ||
| + | अह, आँखों में नाचा करती | ||
| + | :उजड़ गई जो सुख की खेती! | ||
| + | बिना दवा दर्पन के घरनी | ||
| + | :स्वरग चली,--आँखें आतीं भर, | ||
| + | देख रेख के बिना दुधमुँही | ||
| + | :बिटिया दो दिन बाद गई मर! | ||
| − | + | घर में विधवा रही पतोहू, | |
| − | + | :लछमी थी, यद्यपि पति घातिन, | |
| − | + | पकड़ मँगाया कोतवाल नें, | |
| − | + | :डूब कुँए में मरी एक दिन! | |
| − | + | ख़ैर, पैर की जूती, जोरू | |
| + | :न सही एक, दूसरी आती, | ||
| + | पर जवान लड़के की सुध कर | ||
| + | :साँप लोटते, फटती छाती! | ||
| − | + | पिछले सुख की स्मृति आँखों में | |
| + | :क्षण भर एक चमक है लाती, | ||
| + | तुरत शून्य में गड़ वह चितवन | ||
| + | :तीखी नोक सदृश बन जाती। | ||
| + | मानव की चेतना न ममता | ||
| + | :रहती तब आँखों में उस क्षण! | ||
| + | हर्ष, शोक, अपमान, ग्लानि, | ||
| + | :दुख दैन्य न जीवन का आकर्षण! | ||
| + | उस अवचेतन क्षण में मानो | ||
| + | :वे सुदूर करतीं अवलोकन | ||
| + | ज्योति तमस के परदों पर | ||
| + | :युग जीवन के पट का परिवर्तन! | ||
| + | अंधकार की अतल गुहा सी | ||
| + | :अह, उन आँखों से डरता मन, | ||
| + | वर्ग सभ्यता के मंदिर के | ||
| + | :निचले तल की वे वातायन! | ||
| − | + | रचनाकाल: जनवरी’ ४० | |
| + | </poem> | ||
14:18, 4 मई 2010 के समय का अवतरण
अंधकार की गुहा सरीखी
उन आँखों से डरता है मन,
भरा दूर तक उनमें दारुण
दैन्य दुख का नीरव रोदन!
अह, अथाह नैराश्य, विवशता का
उनमें भीषण सूनापन,
मानव के पाशव पीड़न का
देतीं वे निर्मम विज्ञापन!
फूट रहा उनसे गहरा आतंक,
क्षोभ, शोषण, संशय, भ्रम,
डूब कालिमा में उनकी
कँपता मन, उनमें मरघट का तम!
ग्रस लेती दर्शक को वह
दुर्ज्ञेय, दया की भूखी चितवन,
झूल रहा उस छाया-पट में
युग युग का जर्जर जन जीवन!
वह स्वाधीन किसान रहा,
अभिमान भरा आँखों में इसका,
छोड़ उसे मँझधार आज
संसार कगार सदृश बह खिसका!
लहराते वे खेत दृगों में
हुया बेदख़ल वह अब जिनसे,
हँसती थी उनके जीवन की
हरियाली जिनके तृन तृन से!
आँखों ही में घूमा करता
वह उसकी आँखों का तारा,
कारकुनों की लाठी से जो
गया जवानी ही में मारा!
बिका दिया घर द्वार,
महाजन ने न ब्याज की कौड़ी छोड़ी,
रह रह आँखों में चुभती वह
कुर्क हुई बरधों की जोड़ी!
उजरी उसके सिवा किसे कब
पास दुहाने आने देती?
अह, आँखों में नाचा करती
उजड़ गई जो सुख की खेती!
बिना दवा दर्पन के घरनी
स्वरग चली,--आँखें आतीं भर,
देख रेख के बिना दुधमुँही
बिटिया दो दिन बाद गई मर!
घर में विधवा रही पतोहू,
लछमी थी, यद्यपि पति घातिन,
पकड़ मँगाया कोतवाल नें,
डूब कुँए में मरी एक दिन!
ख़ैर, पैर की जूती, जोरू
न सही एक, दूसरी आती,
पर जवान लड़के की सुध कर
साँप लोटते, फटती छाती!
पिछले सुख की स्मृति आँखों में
क्षण भर एक चमक है लाती,
तुरत शून्य में गड़ वह चितवन
तीखी नोक सदृश बन जाती।
मानव की चेतना न ममता
रहती तब आँखों में उस क्षण!
हर्ष, शोक, अपमान, ग्लानि,
दुख दैन्य न जीवन का आकर्षण!
उस अवचेतन क्षण में मानो
वे सुदूर करतीं अवलोकन
ज्योति तमस के परदों पर
युग जीवन के पट का परिवर्तन!
अंधकार की अतल गुहा सी
अह, उन आँखों से डरता मन,
वर्ग सभ्यता के मंदिर के
निचले तल की वे वातायन!
रचनाकाल: जनवरी’ ४०

