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श्रमिक / धीरेन्द्र अस्थाना

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लफ्ज़ दर लफ्ज़
ज़िन्दगी जीता
कभी धरती के सीने को
फाड़कर उगाता जीवन;

पहाडों को फोडकर;
निकालता नदियाँ ।

जिसकी पसीने की
हर एक बूँद दर्शन का
ग्रन्थ रचती ।

उसके जीवन का
हर गुजरता क्षण
ऋचाएँ रचता;

हर सभ्यता का निर्माता
तिरष्कृत और बहिष्कृत
ही रहा सदियों से।