Last modified on 22 नवम्बर 2011, at 12:52

मीत ना मिला रे मन का / मजरूह सुल्तानपुरी

Dkspoet (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 12:52, 22 नवम्बर 2011 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=मजरूह सुल्तानपुरी }} {{KKCatGeet}} <poem> मीत न ...' के साथ नया पन्ना बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)

मीत न मिला रे मन का \- (२)
कोई तो मिलन का
कोई तो मिलन का, करो रे उपाय
मीत न...

चैन नहीं बाहर, चैन नहीं घर में
मन मेरा धरती पर, और कभी अंबर में
उसको ढूँढा, हर डगर में, हर नगर में
गली गली देखा नयन उठाये
मीत न...

रोज़ मैं अपने ही, प्यार को समझाऊँ
वो नहीं आयेगा, मान नहीं पाऊँ
शाम ही से प्रेम दीपक, मैं जलाऊँ
फिर वोही दीपक, दूँ मैं बुझाये
मीत न...

देर से मन मेरा, आस लिये डोले \- (२)
प्रीत भरी बानी, राग मेरा बोले
कोई सजनी, एक खिड़की भी न खोले
लाख तराने, कहा मैं सुनाये
मीत न...