Last modified on 30 दिसम्बर 2012, at 03:24

कला भी ज़रूरत है / लीलाधर जगूड़ी

अनिल जनविजय (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 03:24, 30 दिसम्बर 2012 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार = लीलाधर जगूड़ी }} {{KKCatKavita‎}} <poem> मेहनत ...' के साथ नया पन्ना बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)

मेहनत और प्रतिभा के खेत में समूहगान से अँकुवाते
कुछ बूटे फूटे हैं
जिनकी वजह से कठोर मिट्टी के भी कुछ हौसले टूटे हैं

कुछ धब्बे अपने हाथ-पाँव निकाल रहे हैं
जड़ में जो आँख थी उसे टहनियों पर निकाल रहे हैं
खाली जगहें चेहरों में बदलती जा रही हैं
महाआकाश के छोटे-छोटे चेहरे बनते जा रहे हैं
कतरनों भरे चेहरे
कला जिनकी ज़रूरत है
धब्बे आकृतियों में बदल गए हैं

यह होने की कला
अपने को हर बार बदल ले जाने की कला है
कला भी ज़रूरत है
वरना चिड़ियाँ क्यों पत्तियों के झालर में
आवाज़ दे-देकर ख़ुद को छिपाती हैं
कि यक़ीन से परे नहीं दिखने लगती है वह

कला की ज़रूरत है
कभी भी ठीक से न बोया जा सका है न समझा जा सका है
कला को
फूल का मतलब अनेक फूलों में से
कोई सा एक फूल हो सकता है
फूल कहने से फूल का रंग निश्चित नहीं होता
फूल माने होता है केवल खिला हुआ

कलाओं को पाने के लिए कलाओं के सुपुर्द होना पड़ता है
कलाओं में भी इंतज़ार, ज़बरदस्ती
और बदतमीज़ी का हाथ होता है

बद-इंतज़ामी से पैदा हुए इंतज़ाम
और बदतमीज़ी से पैदा हुए तमीज़ में
कलाएँ निखर कर आ सकती हैं संतुलित शिष्टाचार में
लगातार व्यवहार में वे दिखने लग सकती हैं
निरे इंतज़ार में ढाढ़स बँधाती हुई
अगली बार किसी और नए सिरे से पैदा होने को बताती हुईं ।