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गुलमोहर की संस्कृति / सुरेश विमल

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यह जो
पंक्तिबद्ध पक्षि-समूह
अपने उत्साही डैनों से
मरुस्थली हवा के
आग्नेयास्त्रों को काटते हुए
चला आ रहा है
तुम्हारे रेशमी आँचल की ओर
तुम्हारी संस्कृति का
ध्वजवाहक है...

मनोरमा, सदानीरा नदियाँ
और उनके तटों पर
महकती अमराइयाँ
सिर्फ पड़ाव रहे
इनके लिए...

अपने तमाम सम्मोहन के बावजूद
वे रोक नहीं पाए इन्हें
तुम्हारे पास आने से...

तुम
जो स्वयं
रेत के धोरों से घिरे हो
और अपनी प्यास
किसी से कह नहीं सकते
सिर्फ मुस्कुराते हो...
दरअस्ल
तुम्हारी यह मुस्कान ही
मान-सरोवर है
इन पक्षियों के लिए.।

ऐसे में
जब कि मौसम का महाभारत
अपने चरम पर है
तुम वही
अपने भीष्म पितामह वाले
चरित्र पर अडिग
जिजीविषा का अनवरत
शंखनाद करते हो...

जब तक जारी है
यह महाभारत
और जब तक
मरुस्थली यातनाओं का
यह सिलसिला जारी है
तुम्हारी मुस्कान का जादू
भरता रहेगा जीवन का उल्लास
इन प्यासे
यायावर पक्षियों के
डैनों में।