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रहा / देवी प्रसाद मिश्र

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तो
एक के भीतर एक और को देखने के लिए

इतना अभिशप्त रहूँ कि
प्रसिद्ध,

सिद्ध
और गिद्ध न हो पाऊँ

कोई न छीन सके मेरा
नैतिक निर्वासन

विफलता का शिल्प
दुस्साहस का साहस

कोई न छीन सके
अपने मूल्यांकन की याचना से घनघोर इंकार

सुन साहित्य के कामिसार
मैं एक डार्क काफ़्काई क़िस्सा

तो क्या कहूँ और क्या न करूँ कि
कुछ लोग कम चालाक नहीं हो सकते

कुछ लोग कम संतुलन नहीं कर सकते
लेकिन कभी न बना पाऊँ गिरोह

निकले तो विशद और घनीभूत ओह
मैं सभाहीन

जय हो आते आगत की
क्षय हो अतिशय स्वागत की

धम धम धमक अनागत की
क्योंकि एकांत है

क्योंकि अशांत है
क्योंकि प्रबोध है

और मुक्तिबोध है—
युक्तिबोध के विरुद्ध।

जय हो अनेक की
एकांत के एक की

हिंदी विवेक की।
री महंतात्मक दुविधा,

काव्यात्मक अभिधा
और संतुलनवादी विविधा

इतनी इंटरनेटीय
इतनी समकालीन कि

काफ़ी अधमकालीन