Last modified on 28 जनवरी 2007, at 17:43

देह के रहते ज़माने की / कमलेश भट्ट 'कमल'

Dr.jagdishvyom (चर्चा) द्वारा परिवर्तित 17:43, 28 जनवरी 2007 का अवतरण

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)

रचनाकार: कमलेश भट्ट 'कमल'

~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~

देह के रहते ज़माने की कई बीमारियाँ भी हैं

आदमी होने की लेकिन हममें कुछ खुद्दारियाँ भी हैं।


कोई भी खुद्दार अपनी रूह का सौदा नहीं करता

और करता है तो इसमें उसकी कुछ लाचारियाँ भी हैं।


चाहतें जीने की छोड़ी जायेंगी हरगिज नहीं हमसे

जिन्दगी में यूँ कि ढेरों ढेर-सी दुश्वारियाँ भी हैं।


इस शहर से जिन्दगी को छीन सकता है नहीं कोई

मौत है इसमें अगर तो जन्म की तैयारियाँ भी हैं।


कोई झोंका फिर अलावों में तपिश भर जाएगा भाई

ाख तो है राख के भीतर मगर चिन्गारियाँ भी हैं।