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कल्पना के हाथ से कमनीय जो मंदिर बना था,
भावना के हाथ ने जिसमें वितानो को तना था,
स्वप्न ने अपने करों से था जिसे रुचि से सँवारा,
स्वर्ग के दुष्प्राप्य रंगो से, रसों से जो सना था,
ढह गया वह तो जुटा कर ईंट, पत्थर, कंकडों को,
बादलों के अश्रु से धोया गया नभनील नीलम,
का बनाया था गया मधुपात्र मनमोहक, मनोरम,
प्रथम ऊषा की नवेली लालिमा-सी लाल मदिरा,
थी उसी में चमचमाती नव घनों में चंचला सम,
वह अगर टूटा हथेली हाथ की दोनो मिला कर दोनो हथेली,
एक निर्मल स्रोत से तृष्णा बुझाना कब मना है?
है अन्धेरी रात पर दीवा जलाना कब मना है?
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