भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

बहारें ज़िंदगी में हों सफ़र मुश्किल नहीं होता / रचना उनियाल

Kavita Kosh से
सशुल्क योगदानकर्ता ५ (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 23:52, 30 अगस्त 2021 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=रचना उनियाल |अनुवादक= |संग्रह=क़द...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

बहारें ज़िंदगी में हों सफ़र मुश्किल नहीं होता,
फ़क़त दिल आह भरने से कोई बिस्मिल नहीं होता।
 
चढ़ाया है मुलम्मा भी ज़माना देख शक्लों ने,
छिपा जो रंग है असली कभी क़ाबिल नहीं होता
 
समझदारी अगर दिल हो दिलों में चैन का आलम,
बहस करती रहें जानें जहाँ खुशदिल नहीं होता
 
चढ़ाया आँख पर पर्दा ज़रा शर्मो हया का भी,
जुबाँ के शोर करने से यहाँ हासिल नहीं होता।
 
करूँ सजदा चले हैं जो वतन पर जाँ लुटाने को,
वतन से बेवफ़ाई में जवाँ शामिल नहीं होता।
 
दिलों की दिलकशी में ही बहे जज़्बात का दरिया,
जता दे बेरुख़ी को जो सनम वो दिल नहीं होता।
 
ज़रा तू साध ले सुर को लगा कर तान की सरगम,
बिना सुर साधना के तो गला कोकिल नहीं होता।
 
नबी पूछे सुनो बंदे ग़बी क्यों बन रहा इंसा,
बिना मौला की रहमत से सही फ़ाज़िल नहीं होता।
 
मुसाफ़िर राह पे चलकर चढ़े मंज़िल कहे ‘रचना’
सहें जब धूप के छाले बिना राहिल नहीं होता।